राज्यों को दी गयी स्वायत्तता, प्रदेश स्तर पर संसदीय प्रणाली
की सरकारें स्थापित करने की दिशा में पहला कदम थी। गवर्नमेण्ट ऑफ इण्डिया ऐक्ट,
1935 में 228 निर्वाचित सदस्यों से ‘लेजिस्लेटिव असेम्बली’ के गठन का प्राविधान
किया गया। भारतीय समाज में व्याप्त जाति, वर्ण व्यवस्था और अन्य दूसरे हितों
को निर्वाचन प्रणाली के लिये आधार बनाया गया। असेम्बली का कार्यकाल 5 वर्षों का था
लेकिन राज्य के गर्वनर को यह कार्यकाल पूरा होने से पहले किसी भी समय उसे विघटित
करने का अधिकार था। असेम्बली ने अपने अध्यक्ष और उपाध्यक्ष निर्वाचित किये।
नव गठित विधान सभाओं
के लिये राज्यों में निर्वाचन कार्य 1935 का अधिनियम प्रभावी होने से पहले
ही सम्पन्न करा लिये गये। यू0पी0 की लेजिस्लेटिव असेम्बली के लिये दिसम्बर,
1936 में चुनाव कराये गये। कांग्रेस पार्टी भी चुनाव में उतरी और यू0पी0 सहित देश
के 9 राज्यों में उसे बहुमत मिला। पं0 गोविन्द बल्लभ पंत के नेत़त्व में जुलाई,
1937 में कांग्रेस का पहला मंत्रिमण्डल बना। 29 जुलाई, 1937 को असेम्बली
(तत्कालीन नाम) की पहली बैठक हुर्इ। राजर्षि पुरूषोत्तम दास टण्डन और अब्दुल
हकीम 31 जुलाई, 1937 को क्रमश: अध्यक्ष और उपाध्यक्ष निर्वाचित हुएा आचार्य
नरेन्द्र देव, चौ0 चरण सिंह, गोविन्द बल्लभ पंत, पुरूषोत्तम दास टण्डन, लाल
बहादुर शास्त्री, श्रीमती विजय लक्ष्मी पंडित, रफी अहमद किदवई और नवाबजादा
लियाकत अली खाँ जैसी अनेक विभूतियां असेम्बली के लिये सदस्य निर्वाचित हुईं।
स्वाधीनता से पूर्व
गठित यू0पी0 की पहली लेजिस्लेटिव असेम्बली का कार्यकाल अत्यन्त संक्षिप्त रहा।
द्वितीय विश्वयुद्ध छिड जाने पर 3 सितम्बर, 1939 को गवर्नर जनरल ने केन्द्रीय
अथवा प्रोदशिक विधान मण्डलों में जन प्रतिनिधियों को बिना विश्वास में लिये
जर्मनी के विरूद्ध युद्धरत देशों में भारत का नाम भी घोषित कर दिया। इस ब्रिटिश
नीति से सहमत न होने के कारण पंत मंत्रिमण्डल ने इस्तीफा दे दिया। मंत्रिमण्डल
गठित करके सदन में बहुमत जुटा पाना अन्य किसी के वश की बात नहीं थी। इसलिये अंत
में गवर्नर ने असेम्बली निलम्बित कर दी।
युद्ध के बाद, 1945
में ब्रिटेन में लेबर पार्टी सत्ता में आयी और उसने भारतीय समस्याओं पर नये सिरे
से विचार करने का निर्णय लिया। ब्रिटिश सरकार ने भारत के राजनीतिक नेताओं से राय
लेकर देश में सामान्य निर्वाचन कराने का फैसला किया जो फरवरी और मार्च, 1946 में
सम्पन्न हुए।
विधान मण्डल का
निलम्बन गवर्नर के आदेश से 1 अप्रैल, 1946 को समाप्त हो गया। गवर्नर ने पं0
गोविन्द बल्लभ पंत को मंत्रिमण्डल गठित करने के लिए आमंत्रित किया। पंत जी ने
आमन्त्रण स्वीकार किया, परिणामस्वरूप उनके नेत़त्व में मंत्रिमण्डल ने
कार्यभार ग्रहण कर लिया।
नव निर्वाचित
सदस्यों की इस असेम्बली की बैठक 25 अप्रैल, 1946 को हुई थी। राजर्षि पुरूषोत्तम
दास 27 अप्रैल, 1946 को पुन: अध्यक्ष नर्वाचित हुए। श्री नफीसुल अहन को 15 अगस्त,
1946 को उपाध्यक्ष चुना गया। इस असेम्बली ने उत्तर प्रदेश में जमींदारी प्रथा
समाप्त करने के लिये एक महत्वपूर्ण प्रस्ताव पारित किया और सरकार को इसके लिये
समुचित योजना तैयार करने का निर्देश दिया।
इसी बीच ब्रिटिश
सरकार ने सम्पूर्ण स्वाधीनता के लिये भारत की मांग मान ली। केन्द्र में संविधान
सभा गठित हुई और उसी के साथ अंतरिम सरकार बन गयी जिसमें प्रमुख राजनीतिक दलों के
अधिक़ृत प्रतिनिधि शामिल हुए। इसके बाद ही ब्रिटिश सरकार ने भारतीयों को सत्ता
सौंप देने का मन बना लिया। गवर्नर जनरल ने भारत के महत्वपूर्ण राजनीतिक नेताओं से
परामर्श किया और उस पर ब्रिटिश सरकार की सहमति लेकर सत्तांतरण के लिये अपनी योजना
घोषित कर दी। इसी योजना के तहत ब्रिटेन की संसद ने जुलाई में इण्डियन इंडिपेन्डेंस
ऐक्ट बनाया और 15 अगस्त, 1947 को भारत स्वाधीन हो गया। स्वाधीनता के बाद यू0पी0
लेजिस्लेटिव असेम्बली की बैठक पहली बार 3 नवम्बर, 1947 को हुई।
विधान सभा ने 25 फरवरी, 1948 को इलाहाबाद स्थित
उच्च न्यायालय और अवध चीफ कोर्ट का विलय करने के लिये एक प्रस्ताव पारित किया।
वर्ष 1949 में ऐतिहासिक महत्व के दो संसदीय कार्य हुए- जमींदारी उन्मूलन और भूमि
सुधार विधेयक, 1949 और यू0पी0 एग्रीकल्चरण टेनेन्टस (एक्वीजीशन ऑफ प्रिविलेजेज)
बिल, 1949 जो क्रमश: वर्ष 1951 और दिसम्बर, 1949 में अधिनियम बन गये।